नई दिल्ली : चीनी मंदी
भले ही राजनीतिक रूप से जुड़ी चीनी मिलों को सरकार द्वारा सब्सिडी के रूप में सुरक्षा मिलती है, फिर भी भारत के गन्ना उत्पादकों को 17,684 करोड़ रुपये का भुगतान नहीं किया गया है । देश के लाखों किसान अब भी गन्ने का बकाया भुगतान मिलने की राह देख रहें है, घरेलू और आंतरराष्ट्रीय बाजारों में चीनी के दाम लगातर फिसलने से चीनी मिलें भी आर्थिक सख्ते में है। करोड़ों रुपयों की भुगतान की वजह से यही मिठा गन्ना चीनी मिल मालिक, राजनेता और कई राज्यों की सरकार का मुड़ खट्टा कर सकता है।इससे आने वाले २०१९ के चुनाव में भी गन्ने का मुद्दा उछलने की सम्भावना जताई जा रही है।
किसानों का 17,684 करोड़ रुपये बकाया
भारत में गन्ना किसानों को चीनी मिल मालिकों द्वारा लंबी अवधि के लिए पूरी तरह से भुगतान नहीं किया गया है। एक महीने पहले अनुमानों के मुताबिक, गन्ना के किसानों के बकाया भुगतान की रकम में 17,684 करोड़ रुपये का इजाफा हुआ है। जिनमें उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र राज्य में किसानों की देनदारी सबसे जादा है । उत्तर प्रदेश में 118 चीनी मिलों के पास 11,618 करोड़ रुपये और महाराष्ट्र में 89 मिलें गन्ना उत्पादक का 1,158 करोड़ रुपये देना बाकि हैं।
सरकार का 7,000 करोड़ रुपये का पैकेज
आर्थिक हालात से जुझतें चीनी उद्योग को सहायता करने के लिए जून में केंद्र सरकार ने चीनी उद्योग के लिए 7,000 करोड़ रुपये के बकाया पैकेज की घोषणा की। इनमें से केवल 1,175 करोड़ रुपये यानि की 6.64 फीसदी रकम ही किसानों की देनदारियों के लिए आवंटित किए गए थे। शेष पैसों का उपयोग चीनी मिलों द्वारा उनके बुनियादी ढांचे को अपग्रेड करने के लिए किया जाएगा। हाल ही में, सरकार ने किसानों की सहायता के लिए 200 रुपये प्रति टन तक गन्ने की कीमत में भी वृद्धि की। लेकिन तथ्य यह है कि इससे कुछ हासिल नहीं हुआ हैं।
सरकार ने बेस रिकवरी को बढाया
पिछले साल, गन्ने की फेअर रेवेन्यू प्राइस (एफआरपी) 9.5 प्रतिशत की औसत आधार पर प्रति टन 2,550 रुपये था। 9.5 की बेस रिकवरी के ऊपर अतिरिक्त रिकवरी के हर 1 प्रतिशत के लिए, किसानों को 268 रुपये मिलेगा। इस साल, एफआरपी में 2,750 रुपये प्रति टन की बढ़ोतरी के दौरान, सरकार ने बेस रिकवरी को 10 फीसदी तक बढ़ा दिया। किसानों को अब 275 रुपये का बोनस मिलेगा, लेकिन बेस रिकवरी 9 .5 फीसदी की बजाय 10 फीसदी से ज्यादा होने पर । एफआरपी बढाने से क्या फायदा अगर किसानों को अपना पैसा पाने के लिए महीनों इंतजार करना पड़ता है?
आंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धा करना मुश्किल
अंतरराष्ट्रीय बाजार में फरवरी से चीनी की कीमतें गिर रही हैं और यह गन्ना उत्पादकों के लंबित भुगतान के पीछे मुख्य कारणों में से एक है। ब्राजील और थाईलैंड में अधिशेष चीनी ने भारत में मिलों के मुनाफे को कम कर दिया है। भारतीय चीनी की कीमत ब्राजील की तुलना में 70 से 80 प्रतिशत अधिक है, जो भारत को अंतरराष्ट्रीय बाजार में अन्य देशों से प्रतिस्पर्धा करने में मुश्किल बनाती है।
चीनी मिलों को आर्थिक समस्याओं से बहार निकलने के लिए सरकार नियमित रूप से चीनी उद्योग को सब्सिडी प्रदान करती है। भारत में गन्ने के अतिरिक्त उत्पादन से मिलों के सामने संकट खड़ा है। इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (इस्मा) ने 2017-18 सीजन में देश में चीनी उत्पादन के अपने अनुमान में संशोधन किया और इसे 29.5 मिलियन टन तक बढ़ा दिया गया था। विशेषज्ञों ने अगले सीजन में गन्ने की बम्पर फसल के साथ इसी तरह की स्थिति की भविष्यवाणी की है।
इथेनॉल उत्पादन और मिश्रन बढाने की जरूरत
भारत में गन्ने से चीनी और इथेनॉल उत्पादन करते हैं। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि घरेलू बाजार में चीनी का उत्पादन कम करके भारत को इथेनॉल उत्पादन में वृद्धि करनी चाहिए, इस समय हम केवल ईंधन के साथ केवल 10 प्रतिशत इथेनॉल मिश्रित होने की अनुमति देते हैं, जिसकी सीमा बढाने की जरूरत है । ब्राजील में इथेनॉल मिश्रन की सीमा 25 प्रतिशत है। इसके अलावा, सरकार ने हाल ही में मक्का से इथेनॉल के उत्पादन की अनुमति दी है, जिससे चीनी मिलों के लिए इथेनॉल उत्पादन में भी प्रतिस्पर्धा में वृद्धि हुई है। गन्ना की खेती को धीरे-धीरे कम करना ही एक दीर्घकालिक समाधान हो सकता है, लेकिन इससे देश में कई नेताओं के हितों को खतरा हो जाएगा, क्योंकि कई चीनी मिलें इन नेताओं की खुद की है और इससे उनकी राजनीती उसके ज्रिय्र चलती है । महाराष्ट्र में किसान संघठनों के कार्यकर्ता गन्ने को अक्सर “राजनीतिक फसल” कहते हैं, क्योंकि राजनेता और उनके घरवाले ही अधिकांश मिलों के मालिक है। उत्तर प्रदेश में भी इसी तरह की स्थिति है।
गन्ना खिचता है जादा पानी
सूखे के दौरान भी गन्ना अन्य फसलों पर सिंचित प्राथमिकता पाती है। इसके अलावा, किसान अन्य फसल की तुलना में बेहतर कीमतों पर मिलों को अपनी फसल बेचते हैं। उन्हें बिचौलियों से निपटने की ज़रूरत नहीं होती है। महाराष्ट्र में भूजल का 76 प्रतिशत गन्ने को लगता है । ब्राजील या मॉरीशस जैसे देश जो बड़ी मात्रा में गन्ना की खेती करते हैं, वहाँ मानसून आठ या नौ महीने तक होता है, लेकिन यह मानसून की भारत में नही होती, इसकी वजह से हम ब्राजील या मॉरीशस से तुलना नही कर सकते।
2019 में गन्ना एक बड़ा चुनावी मुद्दा ?
गन्ने का बकाया भुगतान की वजह से यहां गन्ना उत्पादक और मिल मालिकों के बीच एक संघर्ष बना है। चीनी मिलें बड़ी संख्या में गन्ना कटाई मजदूरों को रोजगार देते हैं। एक अनुमान के मुताबिक, महाराष्ट्र में 10 लाख मजदूर सीजन में पांच महीने तक गन्ना कटौती करने के लिए राज्य के भीतर या बाहर जाते हैं। कई बार मिल मालिक गन्ना कटाई मजदूरों के भुगतान में देरी करते हैं, इस
स्थिति में सुधार नहीं होता है, तो 2019 में गन्ना एक बड़ा चुनावी मुद्दा बन सकता है।
कैराना उपचुनाव में दिखी २०१९ की झलक
चुनावी रूप से सबसे महत्वपूर्ण राज्य और सबसे बड़ा गन्ना उत्पादक उत्तर प्रदेश में पहले से ही इसके कुछ प्रारंभिक संकेत मिलें हैं । मई २०१७ कैराना उपचुनाव के दौरान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की हिंदू युवा वाहिनी ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मुहम्मद अली जिन्ना के एक चित्र का मुद्दा उठाकर कैराना उपचुनाव से ध्यान भटकने की कोशिश की लेकिन आरएलडी उम्मीदवार, तबासम हसन ने किसानों को उड़ा दिया और नारे “जिन्ना नाही गन्ना चलेगा” पर चुनाव लड़ा। वह जीत गई। इससे आने वाले २०१९ के चुनाव में भी गन्ने का मुद्दा उछलने की सम्भावना जताई जा रही है