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नई दिल्ली : चीनी मंडी
देश के लगभग 5 करोड़ किसान गन्ना फसल से सीधे जुड़े है, मिलों और खेतों में लाखों लोग काम करते हैं और कई हजार लोग गन्ने की ढुलाई में लगे हैं।भारतीय चुनावों में गन्ना और चीनी का मुद्दा हमेशा छाया रहा है। अब भी देश में चल रहे चुनावी माहोल में अब केवल एक ही मुद्दा काफी गरमाया है, वो है गन्ना बकाया। कई किसानों को लगभग एक साल से बकाया भुगतान नही हुआ है। ऐसे हालात में गन्ना बकाया का सीधा असर चुनाव में होने की सम्भावना है।
प्रधानमंत्री मोदी को देना पड़ा दखल…
प्रधानमंत्री मोदी के भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) द्वारा शासित राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और हरियाणा जैसे राज्य में गन्ना उगाने वाले किसान नाराज है क्योंकि चीनी मिलों ने समय पर अपना बकाया भुगतान नहीं किया है। उन्होंने विरोध प्रदर्शन किया और रेलवे पटरियों को अवरुद्ध कर दिया।गन्ना किसानों के नाराजगी की दखल प्रधानमंत्री मोदी को भी लेनी पड़ी, उन्होंने उत्तर प्रदेश में गन्ना बेल्ट की कई चुनावी रैलियों में कहा, मुझे पता है कि गन्ने का बकाया है। मुझे यकीन है कि, आपके हर बकाये का किसी भी हालत में भुगतान किया जाएगा।
गन्ना बकाया राशि गम्भीर स्तर पर : निति आयोग
सरकारी थिंक टैंक निती अयोग का कहना है कि, गन्ना बकाया राशि गम्भीर स्तर पर पहुंच गई है। देश के चीनी मिलों में 120 लाख टन से अधिक चीनी ढेर हो गई है। निर्यात बिल्कुल ठप हो गई है क्योंकि भारत का चीनी मूल्य अंतर्राष्ट्रीय मूल्य से अधिक है। भारत में चीनी उद्योग मुसीबत में है। पिछले पेराई सत्र में लगभग 525 मिलों ने 300 लाख टन से अधिक चीनी का उत्पादन किया था।अधिशेष उत्पादन से पिछले एक साल से चीनी कीमतों में दबाव देखा जा रहा है, और निर्यात भी प्रभावित हुई है।
गन्ना बनी है ‘राजनीतिक फसल’…
भारत की अधिकांश राजनीति के साथ, गन्ना उत्पादक एक विश्वसनीय “वोट बैंक” मानी जाती हैं। उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र, जो मिलकर देश का 60% चीनी का उत्पादन करते हैं, संसद में 128 सांसद भेजते हैं। एक अनुमान के मुताबिक चल रहे आम चुनाव में 545 में से 150 से ज्यादा सीटों पर गन्ने के वोट निर्णायक हैं।भारत में गन्ना संभवतः सबसे बड़ी ‘राजनीतिक फसल’ समझी जाती है। भारत भी चीनी का बड़ा उपभोक्ता हैं। आपूर्ति का बड़ा हिस्सा मिठाई, मिष्ठान्न और फ़िज़ी पेय बनाने में जाता है।
सरकार द्वारा हर मुमकिन कोशिश…
सरकार गन्ना और चीनी की कीमतें निर्धारित करती है, उत्पादन और निर्यात कोटा आवंटित करती है, और जरूरत पड़ी तो पर्याप्त सब्सिडी भी देती है। राज्य द्वारा संचालित बैंक किसानों को फसल ऋण देते हैं और मिलों को उत्पादन ऋण देते हैं। जब मिलें नकदी से बाहर निकलती हैं, तो सार्वजनिक धन का उपयोग उन्हें बाहर निकालने के लिए किया जाता है। जो भी हो, भारत की विश्वव्यापी फसल संकट में फंस गई है। किसानों और मिलों को लगता है कि, उन्हें अपनी फसल और चीनी का उचित मूल्य नहीं मिल रहा है।
चीनी मूल्य नियंत्रण में चाहिए ढील …
चीनी उद्योग के कई जानकारों का मानना है की, मूल्य नियंत्रण में ढील दी जानी चाहिए और शीतल पेय कंपनियों और फार्मास्यूटिकल्स जैसे थोक कॉर्पोरेट खरीदारों को चीनी के लिए अधिक भुगतान करना चाहिए। चीनी के लिए अंतर मूल्य निर्धारण की आवश्यकता है। सस्ती चीनी केवल उन लोगों को प्रदान की जानी चाहिए जो गरीबी रेखा के निचे है। बाकी को उच्च कीमत चुकानी चाहिए, अन्यथा, उद्योग और किसान भी ध्वस्त हो जाएंगे। यहां तक कि राजनेता भी इसे बचाने में सक्षम नहीं होंगे।