कोल्हापुर: स्वाभिमानी शेतकरी संगठन के संस्थापक, और पूर्व सांसद राजू शेट्टी की हातकणंगले निर्वाचन क्षेत्र में भारी हार ने कृषि आंदोलन के माध्यम से राजनीतिक नेतृत्व के अस्तित्व पर संदेह पैदा कर दिया है, जबकि विशेषज्ञों का मानना है कि किसानों के आक्रोश ने महाराष्ट्र और देश में चुनावी नतीजों में अहम भूमिका निभाई है।
विशेषज्ञों ने कहा कि, किसानों के आक्रोश ने ही महाराष्ट्र में महायुति उम्मीदवारों की हार का मार्ग प्रशस्त किया। दिंडोरी में जहां भाजपा की केंद्रीय मंत्री भारती पवार एनसीपी (एससीपी) के भास्कर भगरे से हार गईं, जिससे ‘एमवीए’ की किस्मत चमक गई। ऐसी स्थिति में, शेट्टी की हार ने कई लोगों को चौंका दिया है। इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह थी कि, वे उस निर्वाचन क्षेत्र में तीसरे स्थान पर रहे, जिसका उन्होंने दो बार प्रतिनिधित्व किया था, उन्हें केवल 1.79 लाख वोट मिले।
पिछले पांच सालों में किसानों और उनकी समस्याओं के लिए सड़कों पर उतरने के बावजूद शेट्टी लोकसभा चुनाव हार गये। इस चुनाव में इस सीट पर करीब 12.9 लाख मतदाताओं ने मतदान किया था। शेट्टी शायद एकमात्र ऐसे उम्मीदवार हैं जो चुनाव लड़ने और ‘वन नो,ट वन वोट’ अभियान चलाने के लिए किसानों के छोटे-छोटे दान पर निर्भर हैं। हातकणंगले सीट पर गन्ना किसानों का दबदबा है।
इस चुनाव में भी शेट्टी ने किसानों बनाम चीनी मिलों की कहानी गढ़ने की कोशिश की, लेकिन गन्ना किसानों का उन्हें ज्यादा समर्थन नहीं मिला।शेट्टी पिछले ढाई दशक से किसान आंदोलन चला रहे हैं, जिसका उन्हें फायदा भी मिला और वे एक बार विधानसभा चुनाव और दो बार लोकसभा चुनाव जीते। हालांकि, आंदोलन को अभी भी समर्थन मिल रहा है, लेकिन शेट्टी की हार ने उनके नेतृत्व वाले किसान आंदोलन के भविष्य पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
चीनी उद्योग विशेषज्ञ विजय औताडे ने कहा, शेट्टी का आंदोलन सिर्फ गन्ना किसानों तक सीमित है।हर निर्वाचन क्षेत्र में भूमिहीन मजदूर, शहरी मतदाता जैसे अन्य वर्ग हैं और उनके मुद्दों को नजरअंदाज किया गया। इसके अलावा, जब गन्ने के लिए उचित और लाभकारी मूल्य अनिवार्य कर दिया गया, तो किसानों को कोई आपत्ति नहीं हुई और शेट्टी को समर्थन कम होने लगा, जिसका परिणाम उनकी लगातार दूसरी हार के रूप में सामने आया।