नागपुर: यवतमाल में जिला प्रशासन को इस बात की चिंता है कि चुनाव के समय भूमिहीन और सीमांत किसान काम की तलाश में पलायन कर सकते हैं। हर साल यवतमाल के पुसद और उमरखेड़ तहसील के गांवों के स्थानीय लोग बड़ी संख्या में पश्चिमी महाराष्ट्र और कर्नाटक में गन्ने के खेतों में काम करने जाते हैं। उन्हें गन्ने की फसल काटने के लिए काम पर रखा जाता है। इस काम के लिए उन्हें 80,000 से 1 लाख रुपये तक मिलते हैं। चूंकि उनकी अनुपस्थिति विधानसभा चुनावों के दौरान अपेक्षित मतदान में बाधा डाल सकती है, इसलिए सरकार उन्हें कम से कम मतदान के दिन तक रुकने के लिए मना रही है।
पलायन ने लोकसभा चुनावों के दौरान मतदान को प्रभावित किया था। द टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित खबर के मुताबिक, जिला प्रशासन विधानसभा चुनाव में ऐसी स्थिति नहीं चाहता है। ग्रामीणों और पश्चिम महाराष्ट्र तथा कर्नाटक के गन्ना क्षेत्रों में उन्हें ले जाने वाले मजदूर ठेकेदारों के साथ बैठक की गई। अभियान में शामिल एक अधिकारी ने बताया कि उन्हें चुनाव तक रुकने के लिए मनाया जा रहा है और सरकार की रोजगार गारंटी योजना के तहत फिलहाल काम भी दिया जा रहा है।
इसके अलावा, एक सरकारी परिपत्र में महाराष्ट्र की चीनी मिलों को 15 नवंबर से पहले सीजन का संचालन शुरू नहीं करने को कहा गया है। इसमें कहा गया है कि उल्लंघन की स्थिति में निदेशक या अन्य शीर्ष प्रबंधन अधिकारियों पर कार्रवाई की जाएगी। प्रत्येक वर्ष राज्य सरकार चीनी मिलों द्वारा पेराई शुरू करने की तिथि तय करती है। यह पानी की उपलब्धता, गन्ने की फसल के पकने के अलावा अन्य मानदंडों पर निर्भर करता है।
स्थानीय लोगों का कहना है कि लाडली बहन योजना हो या न हो, गन्ने के खेतों में काम करना उनके लिए मजबूरी है। यवतमाल के एक किसान और कार्यकर्ता मनीष जाधव कहते हैं, उनमें से कई बंजारा समुदाय से हैं और वे सूखी जमीन पर खेती करते हैं। उन्होंने आगे कहा, वे गन्ना ट्रांसपोर्टरों द्वारा काम पर रखे जाते हैं, जिन्हें बदले में मिलों द्वारा भुगतान किया जाता है। यहां तक कि जिन किसानों के खेतों से वे फसल काटते हैं, वे भी भुगतान करते हैं।
पूरा पैकेज 1 लाख रुपये या उससे अधिक आता है। संतोष राठौर, जो एक नियमित प्रवासी हैं, कहते हैं कि यह काम पैसे वाला तो है, लेकिन कमर तोड़ने वाला भी है।